माँ
माँ
हकीमों से तो लगता है मुझे माँ का जिगर अच्छा |
हजारों इन दवाओं से जो होता है असर अच्छा |
बतादे राज मुझको माँ यहाँ आखिर छुपा क्या है,
तेरी गोदी में रखते ही मेरा हो जाये सर अच्छा |
चुका कर्जा नहीं माँ का फकत रोटी खिलाने से,
दिया अमृत पिलाने का उसे रब ने हुनर अच्छा |
फिराके हाथ सर पर माँ करे जादू तू क्या ऐसा,
निकलता पैर छू करके तो कटता है सफर अच्छा |
सभी रिश्ते तो मतलब के टिके ख़्वाहिश पे होते हैं,
वजह बस माँ के होने से लगे मुझको ये घर अच्छा |
लगे ना धूप बद की तू रहे हर वक्त साया बन,
नहीं देखा कहीं हमने ये माँ जैसा शजर अच्छा |
‘मनुज’मन्दिर न मस्जिद में न गुरुद्वारे में जा बेशक,
जहाँ पर माँ तुम्हारी है खुदा का वो ही दर अच्छा |
मनोज राठौर मनुज,
पता-शाहपुर ब्राह्मण, बाह, आगरा