माँ
??. माँ .??
कलेजे के टुकड़े को अपने,
गर्माती थी वो खुद भीगकर
भरती थी पेट अपने अंश का,
खुद वो आँसू पी-पी कर
पल पल बढे़ उसके पंख,
अपने चूजे की उड़ान पर
लुट जाती थी सिक्कों की तरह,
उसकी एक मुस्कान पर
एक वृक्ष की तरह वह,
सिर पर झेल लेती थी धूप
छाँव में अपनी सम्हालती,
स्व बालक का रूप अनूप
पर यह नादान जिस दिन
स्वयं समर्थ हो गया
वृक्ष की छाँव पर ही,
तब अनर्थ हो गया
उसे बेड़िया लगने लगी,
तब वृक्ष की परछाई भी
सीने पे रखकर पत्थर,
फिर माँ ने उसे रिहाई दी
पथिक बढ़ गया आगे,
माँ ठहरी वहीं रह गयी
फिर लौटेगा पुत्र मेरा”
वह स्वयं से ही कह गयी
आस आस में ही मगर
उम्र ये गुजरती रही
स्वार्थ के स्वांग से
स्नेह दर्शिनी छलती रही
एक दिन फिर लौटा
स्वार्थ का वह खिलाड़ी
ले गया सिर्फ ठूँठ
मार जड़ों पर कुल्हाड़ी
पर जड़विहीन वृक्ष का भी
हृदय प्रसून खिल गया
माँ थी,हुई तृप्त पुनः
बेटा उसे मिल गया
✍हेमा तिवारी भट्ट✍