माँ
गीत लिखूँ या ग़ज़ल लिखूँ अंगार या कि श्रृंगार लिखूँ।
समझ नहीं आ रहा मुझे बोलो! मैं क्या इस बार लिखूँ?
पहले मैंने सोचा मैं वात्सल्य हृदय का प्यार लिखूँ।
फिर विचार मन में आया जाड़े की ठिठुरती रात लिखूँ॥
सर्दी जुक़ाम से बचने की खातिर प्यार की डाँट लिखूँ।
माँ की ममता के समक्ष रोगों की क्या औक़ात लिखूँ॥
मुझको सफल बनाने की उनकी प्रेरक शुरुआत लिखूँ।
हँसी लिखूँ या दर्द लिखूँ या फिर स्नेहिल हालात लिखूँ॥
त्यागमयी सम्पूर्ण समर्पण का अपना प्रतिरूप लिखूँ।
या माँ की ममता में उसकी छाँव लिखूँ या धूप लिखूँ॥
माँ के हाथों की बनी दाल रोटी का पहले स्वाद लिखूँ।
या उनके आँचल में खुद को हो जाना आबाद लिखूँ॥
जीवन के संघर्षों की खातिर उनकी हर सीख लिखूँ।
या फिर उन्हें पवित्र पुराण और गीता के सरीख लिखूँ॥
मेरी हर नस नस से वाकिफ़ होने पर हैरान लिखूँ।
या फिर मेरी नब्ज़ पकड़ने की उनकी पहचान लिखूँ।।
शब्दों की परिपाटी पे मैं कोई गीत और आसान लिखूँ,
माँ तुझे समर्पित मैं अपना सारा जीवन औ जान लिखूँ।
माँ! तेरी महिमा का शब्दों में कैसे मैं गुणगान लिखूँ?
तेरी ख़ातिर लहू का हर क़तरा क़तरा क़ुर्बान लिखूँ।।
©रोली शुक्ला
ग्रेटर नोएडा