माँ से मनुहार (कवितां)
आओ, आ जाओ इक बार फिर लौट माँ तुम आओ न।
अपने आँचल के शामयाने मे मुझको माँ सुला जाओ न।
फिर मन की हुयी चाहत आंचल में तुम्हारे सोने की
इक पल तुम्हें नजर आकर दूजे पल फिरसे खोने की
फिर मन की हुयी चाहत तुम्हारा नन्हा बालक होने की।
इक बार फिर माँ तुम मुझे अपना कन्हैया बना जाओ न।
आओ, आ जाओ इक बार फिर लौट माँ तुम आओ न।
लगती बहुत नजर मुझे तुम काला टीका लगाने आओ न
कब से रो रहा हूँ मन ही मन मुझे सीने से लगाने आओ न
फिर मन की हुयी चाहत लिपट के तुमसे माँ रोने की।
अपने सीने से लिपटा कर जिगर का टुकड़ा बना जाओ न।
आओ, आ जाओ इक बार फिर लौट माँ तुम आओ न।
जी कर रहा नदी पार माँ फिरसे गइया चराने चला जाऊँ मैं
गोपियों को खूबै तंग कर करके माखन फिर चुराऊँ मैं
फिर मन की हुयी चाहत शरारती शैतान माँ होने की।
मेरी नटखट शैतानी से तंग होके कान मेरे ऐठ जाओ न।
आओ, आ जाओ इक बार फिर लौट माँ तुम आओ न।
देखो द्वारे खड़ी है कितनी गोपियां तुमसे फिर लडने को
मेरी माखन चोरी मटकी फोडन वारी शिकायत करने को
फिर मन की हुयी चाहत तुम्हे रुष्ट करके मैया मनाने की
मुझसे बार बार रूठकर मैया फिर से तुम मान जाओ न।
आओ, आ जाओ इक बार फिर लौट माँ तुम आओ न।
अपने आँचल के शामयाने मे मुझको माँ सुला जाओ न।
स्वतंत्र गंगाधर