माँ: सृष्टि का अनुपम उपहार
माँ: सृष्टि का अनुपम उपहार
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जब-जब सृष्टि नियंता होते हैं अतीव हर्षित,
तब उनकी हृदयस्थली से, गूँजता है एक ही शब्द
माँ… माँ… माँ… माँ… औऱ आकृति उजागर होती है
वसुंधरा सी सहनशील माँ की, माँ खिल उठती है, अपनी
फुलवारी को देख-देख, होती सुफलित अपने
आत्मज-आत्मजा को वृद्धित होते हुए,
हँस उठती है फूलों में, नदिया के कूलों में,
नियति बन अनेक माध्यम से होती है अभिव्यक्त
करतीं मुझे सार्थक माँ।
बचपन में मेरे मात्र ढाई माह में पितृहीन होने पर माँ-पिता
दोनों का फर्ज़ निभातीं माँ,अपने व मेरे अच्छे और उज्ज्वल
भविष्य की ख़ातिर ऑफिस जातीं माँ।
तारों की छाँह में ही उठकर मेरा टिफ़िन बनाती माँ,
फ़िर मेरी अलसाती काया को स्नेहिल स्पर्श देकर सहलाती माँ
जागने पर देर करने या उठकर फिर सो जाने पर
मीठी सी डाँट लगातीं माँ। फ़िर बालों को सँवार रिबन
बाँध दो चुटिया बनातीं माँ। हौले से मुस्कुरा मुझे स्कूल के
लिए हाथ हिला बाय-बाय करती माँ। सहज, संयत चाल से लौटकर
ऑफिस से घर आतीं माँ। मुझसे स्कूल में बिताए लम्हों
का हर क़िस्सा मुस्कुरा कर सुनतीं माँ,
हर पाठ, हर सबक याद कराकर, हल कराकर, दोहराकर सुनतीं माँ।
चश्मे के भीतर से अनुभवी आँखों से समझातीं माँ।
सुसंस्कार, शिष्टता, ईमानदारी का पाठ पढातीं माँ।
हर प्रतियोगिता की विषय-वस्तु समझाकर तैयार करातीं माँ।
वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रभावी उच्चारण औऱ हस्त संचालन सिखातीं माँ। निबंध और लेख लिखने के कई गुर सिखलातीं माँ।
जीतकर आने पर ख़ुशी से निहाल हो जातीं माँ,
मेरी विजित हर शील्ड,हर पुरस्कार, हर मैडल को घर
के आलों में सजातीं माँ। मेरे प्रमाण पत्रों को स्नेह से
फाइल में लगातीं माँ। अखबारों में छपी मेरी तस्वीरों,
नामों को एल्बम में लगातीं माँ।मेरे भाषणों व कविताओं की
प्रथम श्रोता व समालोचक बनती माँ।
मेरी हर उपलब्धि की सर्वाधिक खुशी,उत्सव मनातीं माँ।
मेरे रिश्ते की बात चलने पर,मेरे जीवन-साथी के चयन में,
विगलित होती माँ। विवाह रस्मों में पिता को हर क्षण स्मृत करती माँ। फिर भी सब कर्त्तव्य निपुणता से निभातीं माँ।
मेरी विदाई पर सर्वाधिक संवेदना से सिसकतीं माँ।
मुझे हर तकलीफ़ में स्नेह वचनों से सहलातीं माँ।
बिना चिट्ठी,बिना फोन, मेरे दुख को अनुभूत कर लेतीं।
बंद दरवाज़ों में खिड़की सी खुल ठंडी हवा सा स्पर्श देतीं।
जब लगती सारी दुनिया अँधियारी तो जीवन से
भरपूर उजियारा प्रसारित करतीं माँ।
मेरी निराशाओं की बदली को,प्रखर सूर्य-रश्मियों से
ऊर्जस्वित करतीं माँ।
मेरी उपलब्धियों पर हो जातीं गर्वित वसुंधरा सी सहनशील माँ।
शस्य श्यामला बनकर घर के पीछे खाली ज़मीन में पौधे
बहुत जतन से लगातीं माँ। करतीं पुष्पित सुरभित सभी
को,स्वयं को संलग्न करते हुए, प्रतिक्षण, प्रतिपल
सर्वस्व ईश्वर को समर्पित करतीं सदैव सर्वस्व माँ।
मेरे लिए सशक्त सहारे सी हर समय खड़ी मिलतीं माँ।
देतीं संरक्षण, देतीं प्यार परिवर्द्धन कर देतीं विस्तार।
कभी ना चाहतीं अधिकार। वही हैं माँ, सृजन का
आकर्षण, पलपल ध्यान। नीड़ का आमंत्रण, संतति का
निस्वार्थ, निष्काम भरण-पोषण।नापतीं नहीं कभी त्रिकोण,
बनकर मेरा रक्षा कवच बचा लेतीं हर आपदा से,
अनेक विघ्न-बाधाओं व बलाओं के तीर-भाले और तलवारें,
रुक जाते हैं मेरे सिर के करीब आकर बैरंग वापस पलायन हो जाते
हैं, माँ की दुआओं का असर पाकर।
यही प्रार्थना मेरी हृदय की और जीवन की हर श्वास की
तन,मन,धन से सुखी रहें माँ। आए ना कभी छाया भी
दुख-ताप की दीर्घायु व स्वस्थ जीवन मिले खुशियाँ हों
आपके पास सदैव ही अपार, हे विधाता, ये है मेरी पुकार,
जन्म-जन्मांतर तक देना इन्हीं सर्वश्रेष्ठ माँ का मुझे उपहार।
-डॉक्टर सारिका शर्मा
-नई दिल्ली/अजमेर