“माँ भारती” के सच्चे सपूत
नफरत की फसल उगाकर बहुत मुस्करा रहे वो,
इंसानियत का जनाज़ा निकालकर मुस्करा रहे वो I
इन्सान-इन्सान को बाँट कर क्या मिल जायेगा तुमको ?
कोठियां,गाड़ी,सत्ता बढाकर क्या मिल जायेगा तुमको ?
लाशों का कारोबार करके क्या मिल जायेगा तुमको ?
“फूलों की बगियाँ” उजाड़कर क्या मिल जायेगा तुमको ?
नफरत की फसल आँगन में उगाकर मुस्करा रहे वो ,
कफ़न के ऊपर अपना घरोंदा बनाकर इतरा रहे वो I
अपने चारो तरफ बस एक अजीब तरह की खामोसी देखी हमने ,
रोटी के एक-2 टुकड़े के लिए बच्चों की तड़पती आँखे देखी हमने ,
बच्चे की जिंदगी के लिए माँ की इज्जत नीलाम होती देखी हमने ,
मज़बूर, बेबस बहन की लाचारी में सिसकती हुई आँखे देखी हमने ,
नफरत की फसल उगाकर बहुत मुस्करा रहे वो ,
फूलों की बगियाँ में आग लगाकर मुस्करा रहे वो I
“माँ भारती’’ तेरा बेटा तेरी सुन्दर बगिया के लिए कुछ भी न कर सका,
जीवनभर तेरे घर आँगन में सर्प की तरह हमेशा विषवमन करता रहा,
अपने घरोंदे के खातिर तेरी वाटिका के मध्य दीवाल खड़ी करता रहा,
तेरे बच्चों से देशभक्ति का तमगा लेकर उनकी नादानी पर हसंता रहा ,
नफरत की फसल उगाकर बहुत मुस्करा रहे वो ,
“जहाँ के मालिक’’ के इंसाफ से नहीं घबड़ा रहे वो I
“माँ भारती’’ का “ राज ” से बारम्बार बस एक बड़ा अद्भुत सवाल ,
बार-बार क्यों खड़ी की जाती मेरे घर-आँगन में नफ़रत की दीवाल?
“प्रेम का दीपक” जो मेरे हर घर में जलाये वो सच्चा “भारती लाल” ,
गरीब, असहाय, के लिए जो उठे निस्वार्थ हाथ वो मेरे देशभक्त लाल ,
नफरत की फसल उगाकर बहुत ही मुस्करा रहे वो ,
इन्सान-2 में दरार करके “माँ भारती’’ का सपूत बता रहे वो I
“राज” बेदर्दी ज़माने में तेरी इस आवाज को कोई सुनने वाला न मिलेगा ,
तेरी जलाई “प्रेम की अलख” को इस जहाँ में कहीं ठौर-ठिकाना न मिलेगा ,
रंगीन कागज के टुकड़ो की चमक में इंसानियत को पूछनेवाला न मिलेगा ,
तेरे मोहब्बत के पैगाम को इस “जग के पालनहार” का सहारा मिलेगा,
प्यारे जहाँ में नफरत की फसल उगाकर बहुत ही मुस्करा रहे वो ,
“माँ भारती” के प्यार के बदले उसके दामन में आग लगा रहे वो I
देशराज “राज”
कानपुर