— माँ बाप का साया —
जिस पेड़ के नीचे
रहकर कभी सकूं मिला था
उस को आज दर्द दे रहे हैं
वो सकूं पाने वाले
कितनी मेहनत से सींचा
था परिवार का बूटा
जिस पर फल लगने
पर हर कोई हर्षित था होता
पल भर में हर इच्छा हो
जाती थी पूरी
ऐसे वृक्ष की छाँव
में गुजर रही थी जिंदगी
वक्त बदलता गया
पत्ते सूखते गए
हर टहनी से जल सूखता गया
शायद किसी आस से
खुद को जीवंत रखने के लिए
भरम में जीने लगा था शायद
उस पेड़ की छाँव लेकर
मुसाफिर की तरफ सब चले गए
अकेला वो रह गया
अपने आंसूं संग बह गया
हर डाली सूखती चली गयी
पानी तक भी न नसीब हुआ
एक दिन आया तूफ़ान
वो उस पेड़ को जमीन
में ऐसा मिला गया
न पेड़ रहा , न छाँव रही
न उस को संभालने वाला कोई रहा
वकत की गर्दिश से
सिमट गयी सारी खुशीआं
और सब तबाह हो गया
संसार का यही हाल है
माँ बाप के साये से
अलग हो रहे हैं सब
फिर अपनी अपनी दुनिआ में
मगन हो रहे हैं
संसार ही ऐसा हो गया
न धुप न छाँव , बस
सब का सब तबाह हो गया
अजीत कुमार तलवार
मेरठ