माँ-बाप का कर्ज़
गाँव के एक कोने में, जहाँ गली के आखिरी मकान की टूटी-फूटी दीवारें और छत पर लगी दरारें इसकी उम्र और हालात की गवाही देती थीं, एक बुजुर्ग दंपत्ति, रामनाथ और उनकी पत्नी सुशीला, रहते थे। रामनाथ की उम्र लगभग 75 वर्ष और सुशीला की 70 साल के करीब थी। उनके झुर्रियों भरे चेहरे और कमजोर हाथ-पैर इस बात का प्रतीक थे कि उनका जीवन कठिनाइयों और संघर्षों से भरा रहा है।
रामनाथ और सुशीला के पाँच बेटे थे—विजय, संजय, मोहन, रवि, और राजेश। गाँव के लोग कभी इन बच्चों की प्रशंसा किया करते थे, लेकिन अब वही लोग जब इन बेटों की चर्चा करते थे, तो उनकी बातें व्यंग्य और अफसोस में बदल जाती थीं।
रामनाथ और सुशीला ने अपनी पूरी जिंदगी अपने बेटों के भविष्य के लिए खपा दी। वे छोटी-सी खेती करते थे, जिसमें उन्हें अधिक मुनाफा नहीं होता था, लेकिन उन्होंने मेहनत करके अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाया। उन्हें यह उम्मीद थी कि उनके बेटे एक दिन पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करेंगे और उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे।
समय बीता, और उनके बेटे बड़े हो गए। विजय, संजय, और मोहन शहर चले गए और नौकरी करने लगे। रवि और राजेश भी कुछ साल बाद बाहर चले गए। पहले-पहले वे गाँव आते, माँ-बाप से मिलते और थोड़ी-बहुत मदद भी करते थे। लेकिन धीरे-धीरे उनके आने की आवृत्ति कम होती गई। वे काम में व्यस्त रहते, और माता-पिता से मिलने के लिए समय नहीं निकाल पाते थे।
रामनाथ और सुशीला को अपने बेटों से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए था, बस थोड़ी सी देखभाल, थोड़ी सी बात और थोड़ी सी ममता। लेकिन अब उन्हें महीनों तक बेटों की शक्ल भी देखने को नहीं मिलती थी। फोन पर भी बातें कम होती थीं। एक दिन रामनाथ ने फोन पर विजय से कहा, “बेटा, तुम कब आ रहे हो? बहुत दिन हो गए तुमसे मिले हुए।“
विजय ने अनमने स्वर में कहा, “पिताजी, अभी काम बहुत ज्यादा है। अगले महीने देखने का सोचता हूँ।“
समय के साथ उनकी हालत और भी खराब होती गई। खेती अब उनके बस की बात नहीं थी, और कोई आय का साधन भी नहीं था। घर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। रामनाथ और सुशीला ने गाँव के छोटे-मोटे काम करने की कोशिश की, लेकिन उनकी उम्र और कमजोर शरीर उन्हें यह काम करने नहीं देता था।
खाने के लिए पैसे नहीं थे। पड़ोसियों की मदद पर वे अब तक जी रहे थे, लेकिन वह भी कब तक चलता? एक दिन सुशीला ने पड़ोसन से कुछ आटा माँगा। पड़ोसन ने उसे देखकर कहा, “काकी, मैं अब और नहीं दे सकती। मेरे भी हालात ठीक नहीं हैं। बेटों को कहो कुछ भेज दें।“
सुशीला ने अपने बेटे रवि को फोन किया, “बेटा, घर में राशन नहीं है। कुछ पैसे भेज देते तो हम राशन ले आते।“
रवि ने अनसुना कर कहा, “माँ, अभी मेरे पास भी पैसे कम हैं। इस महीने की सैलरी आते ही भेज दूँगा।“
लेकिन महीने बीतते गए और पैसे नहीं आए।
गाँव के लोग अब रामनाथ और सुशीला को देखकर व्यंग्य करने लगे थे। वे कहते, “पाँच बेटे होते हुए भी ये लोग ऐसे जी रहे हैं, जैसे कोई सहारा नहीं।“
रामनाथ और सुशीला को इन बातों से बहुत चोट पहुँचती थी। उन्होंने अपने बच्चों को हमेशा गर्व के साथ पाला था, लेकिन अब वे लोगों की नजरों में शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे।
एक दिन, जब रामनाथ और सुशीला मंदिर के बाहर बैठे थे, तो गाँव का एक आदमी वहाँ से गुजरा। उसने तिरस्कार से कहा, “अरे, इतने बड़े-बड़े बेटे हैं और खुद भीख माँगने की नौबत आ गई है। ऐसा भी कोई करता है क्या?”
रामनाथ ने कुछ नहीं कहा। उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उन्होंने अपने आंसू पोंछ लिए।
रामनाथ और सुशीला की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था। घर में अनाज के दाने गिने जा सकते थे। रामनाथ ने सुशीला से कहा, “सुनो, आज रात तुम खा लो। मुझे भूख नहीं है।“
सुशीला ने उसकी तरफ देखा और कहा, “तुम्हारे बिना मैं भी नहीं खाऊँगी। हम साथ जिए हैं और साथ ही मरेंगे।“
रामनाथ और सुशीला ने उस रात बिना खाए गुजार दी। अब उनके पास कोई उम्मीद नहीं बची थी। बेटे तो अपने ही हो चुके थे, और समाज से कोई उम्मीद करना व्यर्थ था।
एक रात रामनाथ की तबीयत अचानक बिगड़ गई। सुशीला ने उन्हें संभालने की कोशिश की, लेकिन वह खुद इतनी कमजोर हो चुकी थी कि कुछ नहीं कर सकी। रामनाथ ने आखिरी साँसें लेते हुए कहा, “सुशीला, मुझे माफ करना। मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सका।“
सुशीला ने उसके माथे को चूमते हुए कहा, “नहीं रामनाथ, तुमने तो मुझे पूरी जिंदगी भर का साथ दिया है।“
रामनाथ ने सुशीला का हाथ पकड़कर कहा, “अगर हमारे बच्चे हमारे साथ होते, तो शायद आज ये दिन नहीं देखना पड़ता। लेकिन उन्हें कभी हमारी परवाह नहीं थी।“
रामनाथ की आँखें बंद हो गईं, और उन्होंने अपनी आखिरी साँस ली। सुशीला का दिल टूट गया। वह रामनाथ के बेजान शरीर के पास बैठकर रोने लगी, लेकिन उसके आँसू भी सूख चुके थे।
सुशीला ने रामनाथ के शरीर को छोड़ने से इंकार कर दिया। वह उनके पास बैठी रही, मानो वह चाहती हो कि उनकी आत्मा एक साथ ही उस दुनिया में चली जाए।
अगली सुबह, जब पड़ोसियों ने रामनाथ और सुशीला को नहीं देखा, तो वे उनके घर आए। उन्होंने देखा कि रामनाथ की मौत हो चुकी है और सुशीला उनके शरीर के पास बेसुध पड़ी है।
पड़ोसियों ने उनके बेटों को खबर दी, लेकिन कोई नहीं आया। गांववालों ने चंदा इकट्ठा करके रामनाथ का अंतिम संस्कार किया।
सुशीला उस अंतिम संस्कार में मौन खड़ी रही। उसकी आँखें खाली थीं, उसमें अब कोई भावना नहीं बची थी।
अगले ही दिन, सुशीला की भी मौत हो गई। गांववालों ने एक और चंदा इकट्ठा किया और सुशीला का भी अंतिम संस्कार कर दिया। गांव के बुजुर्गों ने आपस में कहा, “पाँच बेटे होते हुए भी उन्होंने इतनी दुःख भरी मौत पाई। ये तो समाज के लिए कलंक है।
रामनाथ और सुशीला की मौत के बाद भी उनके बेटों ने गाँव में आना उचित नहीं समझा। उन्होंने बस फोन पर खबर ली, और फिर अपने जीवन में व्यस्त हो गए।
गाँव वालों ने इस घटना को अपनी यादों में संजो लिया, और यह कहानी एक चेतावनी बन गई—कि माता-पिता का कर्ज कभी चुकाया नहीं जा सकता, और उन्हें छोड़ने का परिणाम कभी सुखद नहीं होता।
रामनाथ और सुशीला की अधूरी कहानी समाज के लिए एक सबक बन गई। यह कहानी बताती है कि माता-पिता की सेवा और सम्मान उनका अधिकार है, और उन्हें उनके अंतिम समय में छोड़ने का परिणाम केवल दु:ख और पछतावा ही होता है।
*****