माँ बनना
जब तक न मिलता नारी को संतान सुख,
घर-परिवार सर्व समाज रहते विमुख।
जाने किन किन बातों से करते तीक्ष्ण उपहास ,
रहता नयनों के इर्द-गिर्द आंसू का वास ।
यह समाज देते बांझी की उपाधि,
या फिर कहते नर नारी हैं आधी आधी ।
अपनी पीड़ा मन में हीं नित करते बास,
बैरियों के बीच होता न कोई अपना खास ।
एक नारी मां न बन सकी तो है उनमें दोष,
पुरुष प्रधान समाज बता क्या पुरुष होते निर्दोष ?
बाहरी जन तो बाहरी ही होते,
अबला अपनों के भी नेह हैं खोते ।
सास-ससुर की भी चलती अपनी बाण,
पाया बहू हमने बैल समान।
बिन संतान के बीते क्या बरस दो चार,
पति संग सबका होता नारी पर अत्याचार ।
सच है माँ बनना है सुन्दर एहसास,
पर क्या कोई बीज- मंत्र है उसके पास?
यह उपहार है ईश्वर का वरदान,
फिर समाज दे क्यों अपनी आख्यान ।
नारी की पीड़ा देखे कौन,
है जब ईश्वर की महिमा ही मौन ।
ईश्वर की कृपा में देर है अंधेर नहीं,
समय , पाय कृपा भी मिलते सही सही ।
परमपिता परमेश्वर संग आदिशक्ति का सुवास,
बुझाता दीन हीन का अमिट प्यास ।
– उमा झा