माँ तेरी याद
मैं थक कर होती जब चूर,
नींद भी होती कोसों दूर।
तब तेरे हाथों की छुअन सी जैसे,
बचपन में पहुंचा जाती है।
तेरी लोरी की गूंज मीठी-सी,
निंदिया अब भी दिला जाती है।
तू ताकत है सारे घर की,
जैसे तू आ कर कह जाती।
घर अपना होता है मंदिर,
अहसास मुझको करा जाती।
बुजुर्गों की सेवा हो या बच्चों की ख्वाहिशें,
तू करती खुशियों की बारिशें।
मांँ न की तेरी परवाह किसी ने,
न पूछी तेरी चाह किसी ने।
मुख पर तेरे कोई शिकन ना
तू किस मिट्टी की बनी थी माँ।
तेरी अंखियाँ कुछ रीती सी,
अब बात हुई वह बीती सी।
आज भी बहुत याद आती है तू मांँ,
मुझको बहुत रुलाती है माँ।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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