माँ तुम मरी नहीं .. .
तुम्हारा हाथ मुझसे क्या छूटा,
मानों विधाता मुझसे रूठा
बाढ़ की विकराल लहरों ने
तुम्हे लील लिया माँ!
मेरा खून सूखता रहा
जैसे रब रूठता रहा
मैं छला सा देखता रहा
तुम बहती रही.. .
कोई तो बचाओ….
तुम आखिर तक कहती रही!
किसी ने कुछ
किसी ने कुछ कहा,
पर मैं जानता हूँ
इन लहरों में
तुम नहीं,
मेरा सर्वस्व बहा!
कभी हाथ तो कभी पैर मारती रही
तुम दूर से भी मुझे निहारती रही
हर गली, हर शहर घूमता हूँ
माँ मैं तेरा पता पूछता हूँ
पर तुम मिलती नहीं
अब आँखे ये खिलती नही
सब कहते हैं तुम रही नहीं,
पर जिन्दा हो तुम यही कहीं
मरी हैं भले उम्मीदें मेरी
पर माँ तुम मरी नहीं!
– नीरज चौहान
(बाढ़ में एक माँ के बह जाने पर उसके बेटे की सवेंदना ने मन को झकझोर दिया तो ये कविता लिखी)