माँ कैसी हो तुम ?
कहानी
माँ कैसी हो तुम ?
आभा सक्सेना देहरादून
कल ही मैं माँ को मेंन्टल हाॅस्पीटल में छोड़ कर आयी हूं उनको मेंटल हाॅस्पीटल में छोड़ना मेरी मजबूरी बन गयी थी अगर, परिवार के सभी सदस्य मेरा साथ देते तो मैं कभी भी माँ को मेंटल हाॅस्पीटल में नहीं छोड़ती। माॅँ के वगै़र घर आज खाली खाली लग रहा है। जब तक वह यहाँ रहीं सबकी आँखों में खटकती रहीं। आज सब खुश हैं सिवाय मेरे क्यों कि मै उनकी बेटी जो हूँ, बाकी सब तो नाम के ही रिश्ते हैं सोच रही हूँ सब काम निबटा कर माँ को देखने हाॅस्पीटल जाऊॅंगी। बहुत याद आ रही है उनकी, मालूम नहीं उनके साथ कैसा वर्ताव हो रहा होगा। कौन उन्हे गरम पानी से अच्छी तरह नहलायेगा। यह सब सोच कर मैं सारे काम निबटाने का प्रयास किये जा रही हूँ और स्वयं को अपने ही कटघरे में खड़ा करके सोच रही हूँ कि क्या मैंने यह सब करके अपनी माँ के साथ इंसाफ किया है?
……..एक दिन मन्नो दीदी हमारे घर आयी थंीं, माँ को अपने साथ लेकर साथ में उनका बेटा नितिन भी था कहने लगीं ‘‘ मीरा पिछले छः महीने से मैं माँ को मैं रख रही हूँ अब कुछ तुम्हारा भी फर्ज़ तो बनता ही है ना माँ के प्रति। अभी तक तो मैं माँ को सँभाल ही रही थी पर पिछले कुछ दिनों से तुम्हारे जीजाजी बीमार हैं, मेरे घर की आर्थिक स्थिति, तुमसे छुपी भी नहीं है दिन पर दिन माँ की दवाइयों का खर्चा भी बढ़ ही रहा है। इसलिये मैं चाहती हूँ अब माँ को तुम ही अपने पास रखो ’’’ अगले दिन माँ को वह मेरे पास छोड़ कर वापिस अपने घर बरेली चली गयी थीं। उनके जाने के बाद मुझे मालूम हुआ कि माँ की हालत ठीक नहीं है। मैंने माँ को अपने घर का पीछे वाला कमरा दे दिया था। जिसमें वह सारे दिन अपने कपड़े तह लगातीं और फिर तह लगे हुये कपड़े खोल भी देतीं एक दिन उन्होने मुझे बुलाया और कपड़े पकड़ाते हुये बोलीं ‘‘मीरा यह मेरे कुछ कपड़े हैं ज़रा प्रेस करा देना, देखो तो अटैची में रखे रखे कितने मुसड़ गये हैं और जैसे अचानक उन्हें कुछ याद आया हो ‘‘ हाँ, तेरी बारात आने तक यह मेरे कपड़े प्रेस हो जाने चाहिये, मुझे आज शाम को यह कपड़े पहनने हैं ’’ मुझे उस दिन अहसास हुआ कि माँ अब पिछली बातें भूलने भी लगी हैं।
एक दिन शाम को मेरे पति दिनेश चीखते हुये से अन्दर कमरे में आये थे। ‘‘देखो तो तुम्हारी माँ एक दम नंगी बाहर वाले बरामदे में खड़ी हैं ’’ मैंने देखा माँ आधे अधूरे कपड़ों में बाहर वाले बरामदे तक आ गयीं थी। मैंने प्यार से माँ को समझाया ‘‘ माँ आप बाहर बरामदे में बैठना चाहती हो ना, तो ठीक है पहले अच्छी तरह से तैयार हो लो तब बाहर बैठना अभी तो आपने ठीक से कपड़े भी नहीं पहने हैं और बालों में कंघी भी नहीं की है’’ और फिर माँ को मैं अन्दर उनके कमरे में बिठा आयी थी। मुझे लग ही नहीं रहा था यह मेरी वही माँ हैं जो कभी इतनी सुन्दर और गोरी थीं जिनके बारे में कहा जाता था कि वह हाथ लगाने से ही मैली होती थीं। थोड़ा बहुत पढ़ी लिखी भी थीं जब कभी भी हम बच्चों के स्कूल में रिज़ल्ट मिलता था तो हम लोगों के साथ वही जाया करती थीं और प्रिंसिपल से बे हिचक हो कर हमारे रिजल्ट के बारे में पूछ भी आया करतीं थीं। कभी कभी वह हम सभी को एक मास्टरनी की तरह पढ़ाती भी थीं। मुझे आज तक नहीं मालूम उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि बह अपनी सुध बुध ही भुला बैठीं। मैं रात को माँ के पास वाले कमरे में ही सो जाया करती थी जिससे कभी उन्हें किसी चीज़ की जरूरत हो तो वह मुझे बुलालें।
एक रात हम सभी खाना खाकर ड्राइंगरूम में टी.वी.देख रहे थे तभी मेरी बेटी रश्मि ने आकर बताया था ‘‘ मम्मी नानी के कमरे से बहुत तेज बद्बू आरही है जरा जाकर देखो तो, उनके कमरे से बद्बू क्यों आ रही है?’’ मैं उनके कमरे में गयी तो देखा माँ रजाई ओढ़े सो रहीं थीं मैंने रजाई हटाई तो देखा माँ, सारी की सारी गन्दगी में लिपटी पड़ी हैं ‘‘माँ यह क्या आपने पौटी करदी वह भी बिस्तर में ’’!
‘‘नहीं, बेटा कहाँ…… कहाँ की है मैंने पौटी ?’’
बच्चों की तरह झूठ बोल गयीं थीं वह। मेरा सारा खाना बाहर को आ रहा था उनकी देह से आ रही बद्बू से मेरा उल्टी करने को मन हो रहा था। उन्हें उठाया और सर्दी भरी ठिठुरती हुई रात में ही गर्म पानी से सिर से पाँव तक डेटाॅल के पानी से नहलाया, तब कहीं जाकर मुझे चैन पड़ा। जनवरी की ठंड में वह काँप रही थीं जब मैंने गर्म पानी की बाॅटल उनके बिस्तर में रखी तब कहीं जाकर वह सो सकीं। उसके बाद मुझे भी गर्म पानी से नहाना पड़ा। वह तो सो गयीं पर मेरे हाथों से उनकी गन्दगी की गन्ध जाने का नाम नहीं ले रही थी। ………….धीरे धीरे उनकी मानसिक स्थिति और भी खराब होती चली जा रही थी।…….एक दिन उन्होने मुझे अपने पास बुलाया और अपने ही द्वारा बाहर लाॅन से लाये हुये पत्थर दिखा कर वह मेरे बेटे मनीष की तरफ इशारा करके कहने लगीं ‘‘ देख तो मीरा, तेरा बेटा मेरा दुश्मन बन गया है मेरे ऊपर पत्थर फेंक कर मुझे मारना चाहता है ’’। मैं असहाय सी सब कुछ मूक दर्शक बनी देख रही थी। इस वर्ष मनीष दसवीं की तथा रश्मि बारहवीं कक्षा की बोर्ड की तैयारी कर रहे हैं। माँ जब उनका जी चाहता चीखने-चिल्लाने लग जाती थीं रात को जब भी मनीष और रश्मि अपना पढ़ने में मन लगा रहे होते तभी वह भी रात में ही शोर मचाना शुरू कर देतीं हर तरफ से उन्हें एक शोर सा आता सुनाई देता रहता था मालूम नहीं उनके मन में ऐसा कौन सा डर समा गया था जिसके कारण वह हमेशा डरी डरी सी रहा करतीं थीं। जब तक वह जागतीं तब तक वह लगातार कुछ ना कुछ बोलती रहतीं उनकी बातों में हमेशा किसी ना किसी के प्रति घृणा , तिरस्कार और बदले की भावना रहती।
एक दिन आलमारी साफ करते समय मेरे हाथ में अपने बचपन वाली एलबम आगयी थी, मैंने जब पापा की फोटो उन्हें दिखायी तो उनका फोटो देख कर ही वह चीखने चिल्लाने लग पड़ीं थीं ‘‘ जानती है कौन हैं यह………..यही हैं मेरे और तुम सबके दुश्मन ……… इन्होंने ही मेरी जिन्दगी तबाह की है ’’ इसके बाद तो वह अपने आप पर काबू ही ना रख सकीं अपनी बिस्तर की चादर और अपने कपड़े सभी कुछ जमीन पर बिखेर कर रख दिये। माँ के कमरे में हो रहे शोर के बाद दिनेश और दोनों बच्चे भी अपने कमरे से बाहर आ गये थे। ‘‘ यह क्या तमाशा बना रखा है तुम दोनों ने कैसा शोर हो रहा है यह ? तुम्हारी माँ ने तो हम सब का जीना ही मुश्किल करके रख दिया है’’ और यह कह कर दिनेश भुनभुनाते हुये अपने कमरे में चले गये थे। अपने परिवार और माँ के बीच जैसे पिस कर रह गयी थी मैं। जाते जाते वह कह गये थे ‘‘ मेरी मानो तो इन्हें पागल खाने में भर्ती करवादो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा इनके इलाज का खर्चा मुझे ही तो देना पड़ेगा वह मैं दे दूंगा कम से कम चैन से तो रह सकेगे हम लोग ’’ दोनों बच्चे भी उनके समर्थन में बोलने लग पड़े थे। ‘‘ हाॅं माँ नानी के यहाँ रहने से हमारी पढ़ाई भी डिस्टर्ब हो रही है। हम लोग जरा सा भी अपनी पढ़ाई पर ध्यान कंसन्ट्रªेट नहीं कर पा रहे हैं। कुछ दिनों के बाद मुझे लगने लगा जैसे वह खाना खाकर भी भूल जातीं हैं। वह देर रात में ही खाना खाने की जिद करने लग जातीं। एक दिन रात के तीन बजे थे अचानक मेरी आँख खुली तो देखा माँ फ्रिज में से कुछ निकालने की कोशिश कर रहीं थीं। मैंने जब पूछा कि उन्हें क्या चाहिये तब वह मुझे ही गालियाँ देने लगीं ‘‘मै अच्छी तरह जानती हूं मीरा ! तुम लोग मुझे भूखा ही मार देना चाहते हो, आज मुझे खाना क्यों नहीं दिया ? अब मैं उन्हें कैसे समझाती कि खाना तो उन्हें मैंने रात को ही अपने हाथ से खिलाया था।
उनका उनके शरीर पर कंट्रोल नहीं रह गया था बाथरूम जातीं वहीं लड़खड़ा कर गिर जातीं ओेेैेर सारे कपड़े पेशाब में गीले कर लेतीं । अब तो लग रहा था मेरा शरीर भी मेरा साथ छोड़ रहा है कभी कभी बच्चे कह ही देते ‘‘ मम्मी, कहीं आपका भी तो इरादा नानी के साथ साथ ऊपर जाने का तो नहीं है। आप मत चली जाना ऊपर, याद रखना हम दोनों भाई बहन का बोर्ड का इम्तिहान है। आप के ना होनेे पर तो हम बोर्ड की परीक्षा पास करने से रहे ’’। मैंने अगले दिन मन्नो दीदी को फोन किया था यह सोच कर यदि मन्नो दीदी कुछ दिनों के लिये माँ को अपने पास बुलालें तो बच्चे अपनी बोर्ड की परीक्षा की तैयारी अच्छी तरह से कर सकेंगे पर, मन्नो दीदी ने माँ को अपने पास बुलाने से साफ मना कर दियाा। अब तो मुझे ही माँ की देखभाल करनी है यही साच कर मैंने अपने मन को समझा लिया।
एक दिन मैं बाथरूम में नहा रही थी बच्चे अपने अपने स्कूल गये हुये थे दिनेश भी आॅफिस चले गये थे । मैं जब नहा कर बाहर आयी तो माँ को अपने कमरे में ना पाकर मेरे पैरों की तो जैसे जमीन ही निकल गयी दिनेश के आॅफिस में फोन किया तो बजाये मुझे सांत्वना देने के फोन पर ही मुझे डाँटना शुरू कर दिया ‘‘ मुझे पहले से ही पता था, एक ना एक दिन ऐसा ही कुछ होगा। क्या कर रहीं थीं तुम आखिर, ध्यान कहां रहता है तुम्हारा ? अब हम क्या जबाब देंगे लोगों को। तुम्हारी मन्नो दीदी तो ताने मार – मार कर पूरा घर ही सिर पर उठा लेंगी, अग़र उन्हें कुछ हो गया तो हम लोगों ने जो कुछ भी अब तक किया है सब पर पानी फिर जायेगा ’’
मैंने ही उनकी बातों पर ध्यान ना देते हुये कहा ‘‘ अच्छा तो अब यह तो बताओ कि अब क्या करें हम मुझे डाँटने का काम तो बाद में भी हो सकता है । प्लीज आप तुरंत घर आजाओ फिर दोनों मिल कर उन्हें ढूंढते हैं’’। मैंने इस सब के बारे में तुरंत मन्नो दीदी को फोन पर बताया तो उन्होंने भी मुझे फोन पर डाँटना शुरू कर दिया ‘‘ यह क्या मीरा, एक छोटी सी जिम्मेदारी भी नहीं निभा पायीं तुम ’’ मैंने बिना कुछ कहे फोन का रिसीवर नीचे रख दिया कोई भी मुझे उस समय हिम्मत बँधाने वाला नजऱ नहीं आ रहा था। माँ को बहुत ढूंढा पर कहीं नहीं मिलीं। दो दिन बाद कोई अनजान आदमी उन्हें घर पहुंचा गया था, यह कह कर कि कई दिन से रेलवे स्टेशन की बैंच पर पड़ी हुई थीं बड़ी मुश्किल से आपके घर का पता बता पायी हैं इस लिये मै इन्हें यहाँ ले आया हूं। मानसिक थकान और बुखार की वजह से मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था। उनकी हालत देख कर मेरी आँखों में आँसू आ रहे थे। मैंने एक बैग में माँ के कपड़े भरे और उन्हें मेंटल हाॅस्पीटल में छोड़ ही आयी।
मेरा घर के काम में मन नहीं लग रहा है बार बार मन माँ से मिलने को हो रहा है। मेरा मन हो रहा है जल्दी से हाॅस्पीटल जाकर माँ से पूछंू ‘‘ माँ कैसी हो तुम ’’ ?…………………………….
आभा सक्सेना