माँ की मजबूरी
माँ की मजबूरी
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खाना खाता हुआ,
मासूम बेटा बोला माँ से,
सुनो, माँ….।
सबने खाना खा लिया,
तुम कब खाओगी खाना,
माँ ने पतीले के तल से,
लगी बची खुची,
सब्जी को देखकर कहा,
बस खाती हूँ अभी…..।
सुबह से शाम तक,
तारों की छाँव तक,
काम करते देख कर,
नन्ही सी बिटिया ने,
तोतली जुबान से कहा,
माँ… सारे तो सो गए,
तुम कब आराम करोगी,
कब बिस्तर पर पड़ोगी,
सुनकर माँ ने कहा,
बस थोड़ा सा रह गया है,
निपटा लूँ…. करती हूँ आराम।
छुट्टी के दिन रविवार को,
बेटा -बेटी दोनों पूछते हैं माँ से,
तुम्हारी छुट्टी कब होती है….।
तुम अपनी मर्जी कब बयाँ करती हो…।
कभी अपने मन की करती हो…।
कभी थकती हो….।
कभी कुछ मना भी करती हो…।
कभी खुद के लिए भी,
समय निकाल पाती हो…..।
खुद के शौक कब पूरे करती हो…।
अपने जिगर के टुकड़ों के,
प्रश्न सुनकर,
जड़ से शून्य सी होती हुई,
निरुत्तर सी हो कर,
बस जरा सा ही,
मुस्करा कर रह जाती है,
और अपनी मजबूरियों को,
मंद मद्धिम सी मुस्कराहटों में
प्रश्नों के उत्तरों को छिपा लेती है…..।
क्योंकि माँ तो आखिर,
माँ ही होती है….
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)