माँ की भोर / (नवगीत)
सुन,सपने में
धुन मुर्गे की
पौ फटने के
पहले उठकर
माता अँगन
बुहारन लगती
बँधी सार में
गैया भूखी,
जैसे माँ की
आशा रूखी,
चारा रखती
भूसा रखती ।
धौन-धान फिर
डाला उसमें,
पानी जरा
मिलाया उसमें,
बन गई सानी
देशी घी-सी ।
निज माता का
दुग्धपान कर
बछड़ा तृप्त
हुआ जैसे ही
फौरन गैया
दोहन लगती ।
चौका लगा
सजाया चूल्हा,
ज्यों वरात में
सजता दूल्हा,
झाड़ू फेरा
बासन माँजे ।
पौंछा मारा
उपले थापे,
बिखरी चीजें
सजा-सजा कर
आँखों में कुछ
सपने आँजे ।
शेष अभी जो
बिखरा घर में
पापा के
जगने से पहले
हाथों उसे
सँवारन लगती ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।