माँ की पीड़ा
माता कुंती आई कर्ण के पास,
हृदय में छिपाए अगणित एहसास।
सूर्यपुत्र को पहचान बताने आई,
ममता की मूक पुकार सुनाने आई।
कुंती बोली, “हे वीर कर्ण सुन,
मेरी ही कोख से हुआ तुम्हारा जन्म।
विधि के विधान ने हमें अलग किया,
तुम्हारा सत्य आज प्रकट हुआ।”
कर्ण के नेत्र हुए विस्मय से बड़े,
मन में उलझन, प्रश्न अगणित खड़े।
“माता हो तुम मेरी?” उसने कहा,
“पर मैं हर मोड पर अकेला ही मिला।”
कुंती ने आँसू भरे नयनों से कहा,
“मैंने तुझसे ये अधिकार छीन लिया।
पर अब आकर सत्य कहती हूं,
तू पांडवों का है सगा भाई, ये बताती हूं।”
कर्ण का मन हुआ विचलित,
माता के प्रति था हृदय करुणा से विकलित।
“हे माता,” उसने धीरज से कहा,
“मैंने कौरवों संग धर्म को वरण किया।”
“तुमने दिया नहीं मुझे नाम, न कुल,
स्नेह से वंचित रहा मैं, जीवन रहा विकल।
अब कैसे त्यागूं उन संबंधों को,
जो मेरे जीवन के हैं आधार, इन बंधनों को?”
कुंती रोई, पर कर्ण रहा अडिग,
उसके मन में था वचन, साहस और दृढ़।
“माँ, मैं तेरा सम्मान करूंगा,
पांच पांडवों का जीवन मैं अवश्य बचाऊंगा।”
कुंती ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से ली विदाई,
उस पुत्र का त्याग, उसे फिर याद आई।
कर्ण रहा अपने धर्म का अटल,
दोनों के हृदय में था बस प्रेम विकल।
माता-पुत्र का ये संवाद अमर,
आँखों को आँसू से देता भर।
धरती पर युद्ध की गाथा लिखी गई,
पर एक माँ की पीड़ा किसी को नहीं दिखी ।