माँ की जिन्दगी
माँ की जिन्दगी …..मनु की कलम से
माँ की जिन्दगी तो यूँ ही तमाम हो गई ।
सहन में दौड़ते -२ जिन्दगी की शाम हो गई ।
चाकी पीसते , चूल्हा फूँकते , आँगन लीपते ।
घर भर का उदर भरते-भरते माँ तमाम हो गई ।।
बस चन्द घड़ी ओढ़ लूँ मैं मेरी माँ के आँचल को ।
पिता की खास दुल्हन घर के लिए आम हो गई ।।
जेवर गहनों से लदी सुकुमार देह,चंचल चितवन ।
बेटे की बरकत के लिए ये तिजोरी निलाम हो गई ।।
हर घाव का मरहम बनके , हर दर्द की दवा बन गई ।
बेटी को अपने जेवर दे सुकून का इन्तजाम बन गई ।।
उज्जवल तेज से दमकता चेहरा झुर्रियों से भर गया ।
माँ की हँसी हम बच्चों की रुलाई पर निलाम हो गई ।।
फिर ढ़ल गई वो रेत के साँचे की मानिंद धीरे – धीरे ।
नई बहू के घर आते ही ये रेत भी बदनाम हो गई ।।
लगे जब नौंचने वसीयत के टुकडे़ अपने अपने भाग के ।
आखिर बूढ़ी माँ भी पिता के साथ बँटवारे के नाम हो गई ।
रह बदल गया ‘मनु’ उसका जिस्म फ़कत एक गठरी में ।
घर , आँगन ,दीवारों के लिए माँ की चर्चा आम हो गई ।।
बस चन्द घड़ी ओढ़ लूँ मैं मेरी माँ के आँचल को …
@ मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’ जयपुर , राजस्थान।