माँ की छाया
मैं अपनी मां की प्रतिकृति हूं ,
मैं अपनी माँ की प्रतिछाया हूँ।
माँ, के रक्त मांस से बनी कृति हूँ
मां के रोम रोम में बसी गति हूं, ।
यूं तो पली-बढ़ी मां के आंचल में,
अब स्वतंत्र हो चली मील वितान तले।
तनकी समर्थ ता मन की शक्ति ,
दोनों मिलकर हुई मैं स्वरूपा शक्ति।
लगती मैं मानो मां की शाश्वत भक्ति,
तभी तो उद्यत हो जगको विस्मित करती।
तन सुंदर हो या न हो मन से सुंदर,
मां से मिलती मां से अलग मां की बेटी कहलाती।
मैं भी अब तेरे यौवन को जीती,
मैं भी अब तेरे रूप को संजोती।
मैं अब बिटिया की मां कहलाती,
जो मेरी रूप प्रतिकृति कहलाती।
हां मैं बिटिया भी और मां भी,
दोह रे रूप में जीती तेरी छाया कहलाती।