घर का बड़ा हूँ मैं
माँ कहती है संभल जा, क्योंकि घर का बड़ा हूं मैं।
जिम्मेदारियां हैं, घर का बड़ा हूं मैं।
सारी छूट है मुझको, और ज़िद पर अड़ा हूं मैं।
तुम कहते हो पाबंद रहो समय के,
कसूर खैर तुम्हारा भी नहीं, जिंदगी पर भी लाश-सा पड़ा हूँ मैं।
ए जिंदगी! दया आती नहीं तुझको भी क्या?
दोस्त, सफर-ए-राही, दिलबरी, सभी को इतना चुभा हूँ मैं !
मांगने पर जब भी तुम आए,
हमसे हम ही को लेकर चले गए।
अब बचा कुछ भी नहीं,
खाली हाथ खड़ा हूँ मैं।।
रश्क,अश्क,वश्क,इश्क-विश्क,
नहीं इजाज़त वज़ूद को मेरे!
इतना ग़ैर – गुज़रा हूँ मैं?
यानि कहकर बतलाऊँ, कि मर चुका हूँ मैं।।
मतलब जिसका जब निकल गया,
पल्ला झाड़ कर, हाथ छोड़कर,
राही बन वह निकल गया।
अब राह पर मज़ीद अकेला खड़ा हूं मैं।
औ’ जिंदगी!!!
कुछ तो शर्म कर, थोड़ा तो रहम खा,
घर का बड़ा हूं मैं…!
– ‘कीर्ति’