माँ कविता नहीं, महाकाब्य है
माँ कविता नहीं, महाकाब्य है |
प्रकृति-पुरुष को समझने के लिए –
माँ शब्द ही प्रयाप्त है |
जो ब्रह्मा-विष्णु-रूद्र को झुलाए,
अष्टादश पुराण भी –
जिसकी व्याख्या न कर पाए,
जो सृष्टि का उदगम है,
सेवा, त्याग, वैराग्य का संगम है,
उस पर यह अकिंचन कुछ कह पाए,
कैसे संभव है |
माँ पर लिखी हर रचना को मेरा सलाम,
परिचय का मोहताज न बने रचनाएँ,
यश-कामना से दूर साहित्य-सृजन –
यूँ ही चलता रहे अविराम |
इसी जज्बे के साथ लेखिनी चलती रहे,
संवेदनाओं को लिपिबद्ध करती रहे,
भाव हो निष्काम |
सतचित, सुखमय, सुन्दर, ब्रह्मरूप माँ !
मेरा सत-सत प्रणाम |
अमल, अनंत आनंद राशि, शिवरूप माँ !
मेरा सत-सत प्रणाम |
निखिल सृष्टि की पालक विष्णुरूप माँ !
मेरा सत-सत प्रणाम |
– हरिकिशन मूंधड़ा
कूचबिहार