माँ और बाबूजी का दुलार
सुबह की किरण संग माँ का दुलार था,
मधुरिम स्वरों में जगाता पुकार था।
नयन के हर आँसू को पोंछ देती,
हृदय में सजा प्रेम का सत्कार था।
बाबूजी की थकी आँखें फिर सजतीं,
सपनों की झोली में आशा पिरोतीं,
समर्पण का हर स्वर नवगीत लिखता,
परिश्रम से जीवन को अनुपम बनाता।
माँ के आँचल की शीतल छाँव में,
हर दुख हर जाता, धरा के भाव में।
बाबूजी के दृढ़ हाथों का था स्पर्श,
संग संघर्षों के भी लाया वो हर्ष।
रात की लोरी मधुर, बाँहों का प्यार,
माँ की गोद में था जीवन का संसार।
बाबूजी की कहानियाँ गढ़तीं सपने,
शांत था जीवन, प्रिय स्मृति के पल अपने।
अब जब जीवन में छाया है अकेलापन,
यादों में फिर आता माँ-बाबू का जीवन।
उनका आशीष अब भी देता आधार,
माँ और बाबूजी का स्नेह अपरंपार।
सजा है वो दुलार हृदय के द्वार पर,
संग रहेगा सदा जीवन के हर सफ़र।
—-श्रीहर्ष —-