माँ और पत्थर
आज मिली थी मुझे
निराला की वही पवित्रा
हां वही जो अभी भी
तोड़ती है पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर
उसे देख मैं ठिठका
और फिर ठहर गया
मेंने देखा उसे फिर
महाप्राण की नजर से
मैंने देखी पसीने की बूंद
ढुलकती उसके माथे से
जिसमें प्रतिबिंबित थे
दर्द, कराह, भूख और चिंता
पर फिर मैनें देखा
उस पत्थर को जिसमें
अनजाने में ही तराश दी थी उसने
उसके बच्चे की सलोनी मूरत
और साथ में सपने उजालों के
शायद इसीलिये वह अनवरत
इलाहाबाद के पथ पर
तोड़ती है पत्थर