माँ एक सीप
देखा है तुमने कभी क्या सीप को लाकर करीब
नाम से होगे वाकिफ पर बात कहनी है अजीब
बाहर भले है भूरी काली बदरंग खुरदुरी मटमैली
पर अंदर सपाट चिकनी शानदार और चमकीली
ज़माने में सब चाहते हैं अपना रंग रूप निखारना
एक दूजे से कहीं बेहतर बस खुद को ही सँवारना
क्यों आखिर है ये पागल क्या लगा इसको जुनून
जान लाख उलझनों में फिर भी दिल में है सुकून
बैठी सहेजे अपने अंदर बूंद एक नाज़ुक सी गोल
वक़्त आने पर ही बनेगी जो मोती एक अनमोल
देह पर रेतीली चुभन हो या जल का दबाव अपार
सागर की गहराई का हो कैसा भी स्याह अंधकार
झेलती रहती सब कुछ लेकिन अंदर नहीं जताती
हालात के सारे थपेड़े वो दीवार बनके है पी जाती
मुश्किलों से लड़ती रहती खुद को बना एक ढाल
करती हिफाज़त सालों कि मोती बने वो बेमिसाल
नायाब मोती को ज़माना जब आंकता बेशकीमत
सीप की सफल हो जाती ज्यों उम्र भर की मेहनत
अब सीप की जगह पर एक माँ को रखकर सोचना
मेरी मानो तो एक बार इसे फिर से पढ़ कर देखना
दीपा धवन
आगरा