माँगती मन्नत सदा माँ….
घूँट पीकर भी जहर का,
बाँटती अमृत हमें माँ।
बाल बाँका हो न शिशु का,
माँगती मन्नत सदा माँ।
खुद पढ़ी या ना पढ़ी हो,
है प्रथम शिक्षक हमारी।
अंग ढीले पड़ गए पर,
कर रही तीमारदारी।
सौंपती जन्नत हमें पर,
हो रही उपकृत स्वयं माँ।
माँजती संस्कार देती।
इक नया आकार देती।
परवरिश में संतति की,
सुख निजी सब वार देती।
कर्म नित ऐसे करें हम।
हर कदम आदृत रहे माँ।
पालती हमको जतन से,
पय पिलाकर पोसती है।
डाँटती भी जो कभी तो,
बाद खुद को कोसती है।
सीख शुभ संस्कार तुझसे,
सुत-सुता संस्कृत रहें माँ।
जब तलक हैं साथ माँ के,
तब तलक हम हैं सुरक्षित।
अन्नपूर्णा माँ हमारी,
रह न सकते हम बुभुक्षित।
जब तलक तेरा सहारा,
हम सदा आश्वस्त हैं माँ।
पूर्ण कर अरमान तेरे,
माँ तुझे हर मान देंगे।
जान-तन में तू बसी है,
तू कहे तो जान देंगे।
धड़कनों में घुल समायी,
प्राण में झंकृत रहे माँ।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह “भाव अरुणोदय’ में प्रकाशित