माँं तो माँ है ।
माँ की आँखे चाहे भरी होंं कितने ही जालों से
देख लेती है,पहचान लेती है, झपट लेती है
बच्चों के हृदयतल में फँसे दुख के कीड़े को।।
माँ की बाँहें चाहे कितनी ही झुर्रीदार और कमजोर हो
पकड़ कर संभाल लेती है बच्चो को मजबूती से
अपने हड्डी वाले हाथों से,खड़ा करती है फिर से जग में।।
माँ का हृदय चाहे दवाईयों व जीवन आघातों ने किया हो कमजोर
पढ़ लेती है दूर से ही बच्चों की उखड़ती साँसों को
फिर पल मे सीने से लगा सामान्य करती उनका हृदय चाप।।
माँ के कान चाहे कितने ही कमजोर हो
पहचान लेती है,पदचापों से उत्साह निरूत्साह
पहुँच जाती है हिम्मत की लाठी टेक निकट
देने बचपन वाला दबंग उत्साह।।
माँ का संतुलन चाहे पलभर भी स्थिर नही रहता
देख लेती है बच्चों की आँखों मेंं स्वाद की भूख
पहूँच जाती है रसोई में बनाने फिर से मीठा परांठा
और गुड़ काहलवा शानदार।।
यह मौलिक व स्वरचित है।
डा नीना छिब्बर
जोधपुर