महोच्चार जाग्रत उर में
सान्ध्य बीती जैसे जीवन नूर की नैया
बहती रेत – सी पीछे छुटती छैया
तस्वीर बन रचती जैसी हो शशि राग
बन , मुरझा उठीं अब अनस्तित्व महफ़िल
महाकाल का वज्र छिपा यह उपवन है किसकी ?
मन्त्र – मुग्ध की ललकार नही , यह धार शिखर का तेज नहीं
बढ़ आँगन उस शिखर तक लौट रहें वो किस नभमण्डल ?
यह खग किस ओर असमंजस में चला किस प्रतीर ?
इन्द्र खड्ग कौन माँगती , अब श्री कृष्ण गोवर्धन नहीं ?
यह वारिद स्वयं विप्लव द्युति आनन किस आण्विक ?
चलती राह तिरछी किरणों से गिरती बहे ओ धराधर
जैसे मानो रसपान प्रकृति या रब का हुँकार भरें ।
यह महोच्चार जाग्रत उर में कहो उपवन किस ओर ?
लौट रहे प्रतिध्वनि क्रांति की , कौन है इसका स्वरसम्राट् !
किस क्षितिज , किस किरणों से वो देती हमें सन्देश ?
बैठ आँगन महाशून्य में , दिवस लौटती क्या पन्थ पखार ?
पथ – पथ बिखरा धूल सी , करवट लें , हुआ क्यों संहार ?
व्रज उच्चाहट कहाँ छिपा , है किसका यह हथियार ?
बीत गयी धारा सब , बैठ कौन ज्ञानी दे रहा प्रकाश ?
दिवस बीती जैसे हो सान्ध्य , पन्थी के गुम हो गयी राह