महाभारत एक अलग पहलू
वक्त ही बलिहारी है
उसी के हम भी आभारी हैं
कवियों के होते कहाँ नसीब हैं
दिवालिया निकलने के करीब है
हम तो लिखते हैं जी
और
कमाल की बात देखो
हमें खुद को पता नहीं
हम क्यों लिखते हैं
लिखने से क्या होगा
वक्त नहीं बदल पाए हम
कलम भी तो न तोड़ पाए हम
जो ताकत है वो कलम में है
या कि हमारे मन में है
कुछ भी तो न बदल पा रहा हमसे
न समाज न देश न मन न हम
बदल रहा है तो वक्त
कट रहा है तो वक्त
घट रहा है तो वक्त
चल रहा है तो वक्त
वक्त रुका ही नहीं
वक्त झुका भी नहीं
चल रहे हैं तो माया है
रुक गए तो बस साया है
वक्त ही राम है
वक्त ही बिहारी है
वक्त ही ब्रह्म वक्त ही हरि हर है
बच नहीं पाए
वे खुद भी इससे आबद्ध हैं
देव हो दानव हो वक्त की मार सबने झेली है
मत पूँछ यह पहेली है
यह चोंसर किसने खेली है
तू मोहरा है
वो भी प्यादा
और कहूँ क्या ज्यादा
मेरी औकात नहीं
दिल पर लेने की बात नहीं
दिल ही अपना कहाँ है
धड़क रहा धड़काने से
धड़कन रुकी और खेल खत्म
पैसा हजम
पिंजर रह जाएगा शेष
बचे अवशेष
पंचमहाभूत में विलीन
अग्नि का अग्नि को
जल का जल को
थल का थल को
वायु का वायु को
आकाश का आकाश को
आत्मा चली जाएगी
कहाँ जाएगी
किस काल में जाएगी
किस हाल में जाएगी
किस रूप में जाएगी
लोक में परलोक में
या वापस
इसी जमीं से परिचय करवाएगी
ये तो वक्त जानता है
वह केवल नसीब नहीं लिखता है
पंचमहाभूत में फिर से जान फूँकता है
फिर फिर आना फिर फिर जाना
मिलता कुछ नहीं
सब वहीं नया पुराना
क्या लाया क्या ले जाएगा
तेरा है ही क्या जो छोड़ जाएगा
सब मोह माया है
उधार की काया है
शरीर नश्वर है
आत्मा अजर अमर है
इन सब से हटकर फिर क्या है
गीता पढ़कर अगर सब तर जाएंगे
तो फिर भगवान हुकूमत किस पर चलाएंगे
जो हालत युधिष्ठिर की हुई
सब बंधु बांधव खेत रहे रण में
रक्त रंजित कुरुक्षेत्र के कण से
गूँज रही असंख्य ध्वनि
कह रही
अब राज करो किस पर करोगे
जैसा करोगे वैसा ही तो भरोगे
अपनों को नहीं तुमने खुद को खोया है
जाकर पितामह के पास युधिष्ठिर रोया है
बोला हे पितामह
कुछ समझ नहीं आता है
देख कर अपनों की लाशों को
मन मेरा कलपाता है
मैं करूँ क्या
पितामह बोले वक्त तेरा है
तू चाहे जो कर ले
या
वहीं कर जो गीता ने सिखाया है
कहता फिर सब मोह माया है
बाणों की सैया पर मैं लेटा हूँ
मैं मेरी मृत्यु का अधिष्ठाता हूँ
उक्ता गया अब लेटे लेटे
चले गए हैं जहाँ मेरे
अपने बेटे
अब शेष रहा क्या है रुकने को
अन्याय के खिलाप झुकने को
तुम्हे अन्याय से लड़ना था
अन्यायी से लड़ बैठे
अब भोगो सुख राजगद्दी का
अर्जुन को बहम था
श्रेष्ठ धनुर्धारी होने का अहम था
भीम को गदा पर
तुमको सत्य और ज्ञान पर
नकुल सहदेव ठहरे बेचारे
उनके पास था कल (हथियार )नहीं
और वक्त का बल नहीं
समझ नहीं आता वे महाभारत के
कैसे पात्र हैं
हैं तो क्यों हैं
द्रुपद सुता से कहना
अब जी भर कर हँसना
लहू दुशासन का पीकर
केश निखर आये होंगे
खून के लच्छे से
गूँथना अब इनको अच्छे से
बदला हो गया पूरा
ये इन्द्रप्रस्थ तेरा हस्तिनापुर भी तेरा
कलेजे को शीतलता मिल गयी होगी
खून के प्यासे मन ने राहत की सांस ली होगी
हे पौत्र युधिष्ठिर
न जाने अब तुम्हे किस किस का विछोह हो
अगर मुझसे थोड़ा सा भी मोह हो
तो जाते जाते
अर्जुन से कहना
हो तुम्ही संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी
इस महाविनाश के
अकेले तुम ही आभारी
उसके तुणीरों में है भूख
कंठ गया है मेरा सूख
मैं नहीं अमर
धर्म होगा जा जल्दी कर
कहीं मेरी मौत उसे तिलमिला दे
कहना
मरने से पहले मुझे पानी तो पिला दे
मरने से पहले मुझे पानी तो पिला दे।।
भवानी सिंह धानका “भूधर”