महाकवि
हिमालय जेहन अटल
पौरूष प्रबल पराक्रमी वीर कर्णक वसुधारा
नेत्र छन्हि अध्यभीजल
ठमकि पड़ल भाषा संस्कार संस्कृति
परिपन्थी विराजित अंग पुत्र
बिकाएत मोल अनमोल
झहरैत विरासत देखनार कतह
ऋध्दि सिद्धि छोड़िकए जाइए
गंगा माय तमसायल
चरण छुअब
मुदा आशीष कतह भेटल
डंक सपोर छन्हि ठारह,पाज करैत
हरे राम हरे राम बस बाजैत
अरि जेना हमहि
अन्नचिन्हार बस हुनका
तनिको अधिकार नै हमरा
प्राचीन इतिहास मे
संस्कृति संस्कार मे
कण कण मे
अपनुहुँ छी मैथिल
मुदा एहि बातकें,जानब नै मानब
तँ कहू दोसर बापक जनमल के
के थिक कुंठा
अल्प आयु बाँचल मिटै बोली
पसरैत छैय आन संस्कृति संस्कार
गजानन बनिकए विराजमान छी अहाँ
ललका धागा बान्हैत छी अज्ञानीकै
रंग मे रंग कऽ बस डोलैत
महाकवि भवप्रितानन्द आ गजेन्द्र हेम के
दिनकर फणीश्वरनाथ आ राधाकृष्ण के
इयाद बिसार देलहुँ
महाकवि अपने
आब इतिहास जला दू
मुदा संस्मरण कऽ लिअऽ बाबा बैद्यनाथ के
आशीष कोना भैटत
जय महाकवि जय हो अपनेक माया
मौलिक एवं स्वरचित
@श्रीहर्ष आचार्य