महफिल अदब की है
महफ़िल अदब की है बिछी कालीन आप की
जुर्रत नही कि कर सकूँ तौहीन आपकी
अपना वजूद खाक में हमने मिला दिया
फिर भी न क्यों कर हो सकी तस्कीन आपकी
इस दौर में बेचैन हैं दोनों ही बराबर
अधनंगा मेरा जिस्म और संगीन आपकी
क्यों इस तरह सियाह हुई है ये अचानक
वो अब तलक जो शाम थी रंगीन आपकी
कहते हैं कैसे काबू करें दिल दिमाग को
ललचा रही है ये खुली आस्तीन आपकी
हम कल भी थे और आज भी बंधुआ मजूर हैं
हल बैल बीज आपके जमीन आपकी
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डॉक्टर //इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तव