‘महगाई’
रो रहें हैं लोग सब महगाई के मारे, हाँ महगाई के मारे
आई क्यों महगाई कुछ जाने ना बेचारे, हाँ जाने ना बेचारे।
जन संख्या है बढ़ रही ,
खेती कम है पड़ रही।
कहीं फैक्टिरियाँ हैं बन रही ,
कहीं सड़कें हैं खुद रही ।
शौक हजारों हैं पालते ,
आदत बुरी हैं डालते ।
घरों पे घर हैं बन रहे
ढेर कचरों के हैं लग रहे हैं
पेड़ पौधे कट रहे हैं
जंगल भी छंट रहे हैं
रोग बहुत बढ़ रहे
निर्धन बे मौत मर रहे
वाहन भी बढ़ रहे हैं
पर्वत भी ढल रहे हैं
नये फैशन भी चल रहे हैं।
लोग आलसी बन रहे हैं
कुछ के रुपये सड़ रहे हैं
कुछ को कम पड़ रहे हैं
सब करनी इंसान की है
घात बईमान की है
फिक्र नहीं जान की है
पर चिंता अपनी शान की है।
क्या जन संख्या कम करोगे तुम महगाई के मारे, हाँ महगाई के मारे।
खुद कुल्हाड़ी अपने पाँव पर हो मारे, हाँ पाव पर हो मारे।
रो रहें हैं लोग सब महगाई के मारे, हाँ महगाई के मारे।
आई क्यों महगाई कुछ जाने ना बेचारे, हाँ जाने ना बेचारे।