मस्त बचपन (कहानी)
सुबह के 04:00 बजे थे, रोहन अपनी स्कूल की छुट्टियाँ खत्म करके लखनऊ लौट रहा था टिकट घर से टिकट लेकर चण्डीगढ़ सुपर फास्ट एक्सप्रेस में चढ़ गया भीड़ अपने चरम पर थी लेकिन कैसे भी करके महिला बोगी में घुसकर बैठ गया, और काफी आराम से बैठ गया। ट्रेन में जिस तरफ सिंगल वाली सीट होती है न। उसी सीट पर उसने पूरे हक के साथ कब्जा कर लिया था उसके सामने दो बच्चे बैठे थे भाई-बहन से दोनों।
जनवरी की ठण्ड भी अपने पूरे आगोश में थी चारों ओर पाले के प्रकोप ने अपनी बादशाहत पूरी तरह से कायम कर रखी थी मफलर, टोपी, स्वेटर, जूते-मोजे और ठण्ड से बचने वाले सभी उपाय ठण्ड की बादशाहत को परास्त करने में नाकाम थे लेकिन बचपन तो बचपन होता है न, चुलबुलपन, नटखटपन, शरारतीपन, मम्मी-पापा, दादी-बाबा और सभी शुभचिंतक इन सभी रिश्तों की नाक में दम किये बगैर बचपन की परिभाषा कहाँ परिभाषित होती है। रोहन के सामने बैठे दोनों भाई-बहन भी अपने बचपन को पूरी तरह से परिभाषित कर रहे थे। रोहन ने उन दोनों बच्चों से बात करने की कोशिश की तो सिर्फ उनका नाम पूछा भाई का नाम था आर्यन और उसकी छोटी बहन का नाम था अव्या।
ट्रेन बरेली स्टेशन से जैसे ही छूटी वैसे ही उन बच्चों ने अपने बचपने वाले धर्म को निभाना शुरू कर दिया। और चलती ट्रेन में बच्चों की पहली ख्वाहिश होती है खिड़की वाली सीट हासिल करने की। तो वहां भी आर्यन और अव्या ने बाजी मार ली थी और खिड़की वाली सीट हासिल कर ली थी फिर क्या था सबसे छोटी अव्या बार-बार खिड़की खोलने की जिद कर रही थी अव्या को खिड़की खोलते देख पास में ही बैठे उसके मम्मी पापा और अन्य सहयात्री आव्या को समझाते हुए बोले बेटा अंधेरे में कुछ भी नहीं दिखेगा। ये बात सुनकर अव्या शान्त हो गई और अपने पापा का फोन लेकर टाॅम एण्ड जेरी देखने लग गई, लेकिन जैसे ही किसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन रूकती वहाँ पर लगी सफेद राॅड का उजाला देखते ही अव्या अपनी तुतलाती आवाज में कहती देखो पापा दिन निकल गया। उसके पापा कुछ वक्त के लिए खिलाड़ी खोल देते और जब ट्रेन चल देती तो खिड़की का शीशा बन्द कर देते, ताकि अव्या को ठण्ड न लगे। कई स्टेशनों पर यही क्रम जारी रहा। हरदोई में ट्रेन कुछ खाली हुई तो अव्या अपनी मम्मी के पास आकर फिर से खिड़की वाली सीट पर आकर बैठ गई, तब तक कोहरे के आगोश से भरे उजाले ने नई सुबह का स्वागत कर लिया था और अव्या ने अपनी मम्मी के पास वाली खिड़की पूरी खोल दी, जिस कारण पूरे कम्पार्टमेंट में शीत लहर प्रभाहित हो गई। जिस पर उसी कम्पार्टमेंट में बैठे हुए एक वृद्ध व्यक्ति ने अव्या के पिता जी को अपना ज्ञान बाँटते हुए बोले, “अरे आपको बच्चों को नियंत्रित करना नहीं आता ये शीत लहर आपके बच्चों को बीमार कर देगी।। “
रोहन ने महसूस किया कि अव्या की माँ को उस वृद्ध की बात कुछ अटपटी सी लगी तभी तपाक से बोल पड़ी।
अव्या की माँ बोली, “अंकल जी बच्चों को हर जगह मारा नहीं जा सकता कहीं-कहीं बच्चों की बात माननी पड़ती है और आप देख रहे हैं न, कि हम लोग बराबर अपने बच्चों को समझा रहे हैं अब नहीं मान रहे हैं तो क्या करे। “
अव्या की माँ की बात सुनकर वह वृद्ध व्यक्ति बिल्कुल खामोश हो गए और थोड़ी देर बाद अव्या की माँ ने उसे अपने आलिंगन में भरकर अपनी शाल की गर्माहट में लपेट कर उसे भरका दिया और देखते ही देखते अव्या को अपनी मम्मी की गोद में नींद आ गई। लेकिन कुछ ही देर बाद अव्या फिर उठकर बैठ गई और फिर से उसने अपनी शैतानियों को शुरू कर दिया। अव्या के पापा ने उससे पूछा, “अव्या बेटा हम कहाँ जा रहे हैं।
तब अव्या ने कहा,”पापा! हम नानी से मिलने जा रहे हैं।”तभी उसके पापा ने कुछ मुस्कराते हुए कहा,”अव्या तुम्हारी मम्मी को यही छोड़कर चलें।”तो अव्या ने जवाब दिया मैं तो रोज अपनी मम्मी से मिलती हूँ आज मम्मी को भी अपनी मम्मी से मिलने का मौका मिलना चाहिए। एक मासूम से बचपन के मुँह से ये बात सुनकर सब खिलखिला कर हँस पड़े। और इस तरह रोहन पूरे सफर भर इस बचपन के सीधे प्रसारण को देखता हुआ लखनऊ पहुंच गया और उनकी शैतानियों में रोहन ने खोज लिया था उसने अपना बचपन।
19 जनवरी 2020
प्रातः 8:40 बजे
स्थान ट्रेन में
लेखक स्वतंत्र गंगाधर