मसलहत
मसलहत थी इक आशियां बनाने की
तुम बना बैठे महखाने को अपना घर ।
तल्ख़ कर बैठे जिन्दगी अपनी
ज़ाम-ए-ज़हर जो सीने में उतरा तुमने
परतोख़ बहुत थे तुम्हारे सामने
पर अंधा कर दिया इस ज़ाम ने
अब तो संभलो यह जिंदगी तुम्हारी है
बहुत जारीबाना चुकाया तुमने इस ज़ाम का
अब तो छोड़ने का बेख़ता अख़्तियार है तुमको
या अब भी प्यार मयस्सर है इससे
अगर है भी तो तब्दील करो यार इसमें
जवाबदेह होना है ख़ुदा के इजलास में
मसलहत है अब भी प्यार के असबाब की
मसलहत थी इक आशियां बनाने की
तुम बना बैठे महखाने को अपना घर ।।
?मधुप बैरागी