मसनद पर भी बेहूदापन नहीं गया
ग़ज़ल
मसनद पर भी बेहूदापन नहीं गया।
तेरी बातों में ओछापन नहीं गया।।
कितनी मीठी नदियां तुझमें जज़्ब हुई।
पर सागर तेरा खारापन नहीं गया।।
और नये कुछ ख़्वाब दिखा सकता है तू।
अब तक जनता का भोलापन नहीं गया।।
रोज़ नये किरदार बदलता रहता है ।
तेरा तो ये बहरुपियापन नहीं गया।।
पुंगेरी में हमने तो छः माह रखा।
कुत्ते की दुम का टेढ़ापन नहीं गया।।
शहरों से सड़कें गाँवों तक आ पहुंची।
लेकिन गांवों से अपनापन नहीं गया।।
गोरे आपस में लड़वा कर गये “अनीस” ।
काले लोगों का गोरापन नहीं गया।।