मशगूल जिंदगी
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक ?अरुण अतृप्त
मशगूल जिंदगी
इस जिंदगी के मायने
कभी मैं न समझ सका ।।
तू चार दिन को क्या
मिला, वो भी बुझा बुझा ।।
तू चार दिन को जो मिला
तो भी छुपा छुपा ।।
मिल कर भी ना मिल सका
दिल है बुझा बुझा ।।
जज्बात मेरे दिल के
दिल ही में रह गए ।।
अरमान थे जो अपने मन के
अश्कों में बह गए ।।
दुनिया की भीड़ से कभी
मैं न बच सका ।।
इक पल सकून का भी
मुझको न मिल सका ।।
इस जिंदगी के मायने
इस जिंदगी के मायने
कभी मैं न समझ सका ।।
तू चार दिन को क्या
मिला वो भी बुझा बुझा ।।
तू चार दिन को जो मिला
तो भी छुपा छुपा ।।
तेरे रिवाज़ क्या थे
समझूंगा फिर कभी ।।
फुरसत के उन पलों से
सीखूंगा तो मैं तभी ।।
रह रह के है सब कुछ
मुझे अब याद आ रहा ।।
अपनी जुबान से तो तू
जिसको न कह सका
जिसको न कह सका ।।
तो क्या हुआ तिरी
आँखों से तो मैंने
हर हर्फ़ पढ़ लिया ।।
इस जिंदगी के मायने
कभी मैं न समझ सका ।।
तू चार दिन को क्या
मिला वो भी बुझा बुझा ।।
तू चार दिन को जो मिला
तो भी छुपा छुपा ।।
बेचैनीयां थी जो दिल की
अब और बढ़ गई ।।
उदासियों की एक चादर ने
मेरा पूरा बजूद ढक लिया ।।
कहने को बहुत कुछ था
पर कुछ भी न कह सका ।।
दुनिया की भीड़ से कभी
मैं न बच सका ।।
दो पल सकून के तो,
मैं , ढूँढता ही रहा ।।
इस जिंदगी के मायने
कभी मैं न समझ सका ।।
तू चार दिन को क्या
मिला, वो भी बुझा बुझा ।।
तू चार दिन को जो , मिला
तो भी छुपा छुपा ।।
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