मरीज़ -ए- इश़्क
उठती है इक लहर सी दिल में जब मैं थाम लेता हूं मय़ का प्याला।
इश्क़ ने मुझे इस क़दर मारा डूबा मैं तो पीकर हाला।
अश्क़ थमते नही त़र हो गया है जिस्म़, कौंधतीं है बिजलियां जब तब ज़ेहन में ।
हर तरफ सन्नाटा छाया डूब के रह गया हूं तन्हाईयों में।
दिल की माला में पिरोए प्यार के मोती टूट कर बिखर गए है।
कैसे संभालू दिल को हम तो कम़सिन बाला के हाथों बेबस हो लुट गए हैं।
थम कर रह गई है ज़िंदगी अब तो दिन में भी उजालों से दूर हूं।
क्या करूं कुछ समझ न आए इश्क़ के हाथों मजबूर हूं।
ख़यालों में दहश़त जगाए बहका बहका सा रहता हूं।
जैसे किसी ज़हर का नशा हो लिए कांपता जिस़्म लड़खड़ाता सा फिरता हूं।
स्य़ाह पड़ गया ये जिस्म़ शायद ज़हर -ए -इश्क़ के अस़र से।
गुम़ हो गए होश मेरे जब मैने सोचा इस नज़र से।
अब तो सारा आलम़ मुझे घूमता सा नज़र आता आता है।
मुझ मरीज़- ए – इश्क़ को भूचाल सा आ गया लगता है।