मरीचिका
जीवन के पथ पर
भागता रहता हूँ
मैं सदैव
अपनों से
परायों से
जिस्मों से
सायों से
धर्मों समुदायों से
भागम-भाग के जीवन में
कहाँ ठहराव है
मैं नहीं जानता
जानता तो रुक जाता
ठहरी हुई
हवा की तरह
सूखी हुई
नदी की तरह
भीगी हुई
घटा की तरह
मैं बस जानता हूँ
भागना मेरा भाग्य है
इसलिए नहीं रुकता
भागता ही जाता हूँ
थक कर भी नहीं थकता
मैं रुकता
पर क्या करूँ
जीवन के पथ पर
रुक कर ये देखा है
खाली रिक्तिकाएं हैं
मंज़िल की सूरत में
केवल मरिचिकाएं हैं।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”