मरासिम
मरासिम टूट जाते हैं,मुसलसल आज़माने से
तस्स्वुर और हकीकत ज़ुदा है इस ज़माने से
लहू चूस लेती है यहां ये मतलबी दुनिया
कहाँ निभते हैं मरासिम बस निभाने से
हम-नफ़स थे जो, जिनके मतलब निकल गए
मुँह फेर ही लेते हैं, किसी ना किसी बहाने से
जिसने दिल ख़ाक कर तबाह कर डाला
नहीं जलते अल्फ़ाज़ वो ख़त जलाने से
एक बार सुलग जाए दिलों में गर शरर
मज़ाल क्या बुझ जाए,’जाना’ वो आग बुझाने से