मय-ए-मुहब्बत
भूली जाती नहीं मुहब्बत इस ज़माने में,
कोशिश तो बहुत की हमने भी मैखाने में,
आ आ के तंग करती थीं तन्हाइयों में,
बहुत मर्तबा बंद की यादें तहखाने में,
जख्म नासूर बने, कई मौसम-ए-हिज़्राँ में,
वक़्त लगा दर्द को भी, दिल में समाने में,
लहू में घुले, रुके हुए अश्क बहे नस-नस में,
आतिशे-इश्क़ से प्याला-ए-ज़हर बनाने में,
रगों में दौड़ता खून, लाया ज़हर का असर जुबां में,
तल्ख़ लहज़ा करने में, अलफ़ाज़ में दर्द जगाने में,
दिल में बनी मय-ए-मुहब्बत ‘दक्ष’ ले आया ज़माने में,
चंद अशआरों और ग़ज़ल के पैमाने में,
उठाओ पैमाना, लुत्फ़ लो लब पे लगाने में,
कोशिश तो बहुत की हमने भी मैखाने में,
-विकास शर्मा ‘दक्ष’-