मयनोशी सी आँखों के है क्या कहने
मयनोशी सी आँखों के हैं क्या कहने
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मयनोशी सी आँखों के है क्या कहने
नैनों के अफसानों के हैं क्या कहने
नैन कटोरे जैसे मदिरा के प्याले
आसव रूपी नजरों के हैं क्या कहने
मोटे मोटे दृग हों जैसे मयकदे
स्वर्गतुल्य नजारों के हैं क्या कहने
नजरों का नजराना जो है हमें मिला
माधुर्य के मधुवनों के हैं क्या कहने
मृगनयनी नयनो में जन्नत है बसती
लाखों वो दीवानों के हैं क्या कहने
कश्मीरी वादियों से हैं शरबती नैन
फूलों और बहारों के है क्या कहने
देखने वाले का मजाज बिगड़ जाएं
बरसती फुहारों के हैं क्या कहने
दृष्टि पड़ते ही सिंहासन हिल जाए
दो दिनी मेहमानों के हैं क्या कहने
सुखविंद्र नम लोचन से है नीर बहे
बहते हुए आँसुओं के है क्या कहने
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)