मन
4. मन
मन मानो मण-मण है
वास्तविकता जन-जन है।
खोता-पाता रचत -बिगाड़त,
सब खेल विधाता का तन-तन में है।
सोचत-सोचत तन बन तिनका,
मित मिला ना मोहे मनका।
निज नयना नीर नहीं भई ,
खोवत सोचत रैन बिसारी ।।
विधि विधाता लेख लखावै.
सोचतै मन हंसी खुद आवै।
बिफरता बेबस मन कहां जावै,
सौचत-रौवत हसत-हसावै ॥
कटीले कंकर कीट क्रिटिक पथ डारै ,
मृत मन ग्लानि, रीझत- रीझत मारै।
उठावत पत्थर के सिर झारै,
मलिन मन मनन कर मन न रिझावै ॥
सतपाल चौहान