मन
सब के मन कि मैं क्या जानूं सब मुझमें ही बसते हैं
अलग अलग कुछ भी नहीं अपने मुझ में ही तिरते हैं
~ सिद्धार्थ
1.
मन के छोटे से कमरे की दीवार सीलन वाली है
दरारें हैं कुछ गहरी सी और पपड़ी गिरने वाली है
कुछ छोटे छोटे धब्बे है कुछ बेतरतीब निशानी है
कुछ खरोचें हैं जो रिसती रहती है अंदर ही एक नाली है
मैं लाख जतन क्यूं न कर लूं क्यूं न उम्मीदों के चुने से रंग दूं
दीवारों में जो चोरी से सेंध लगी है वो साली बड़ी बबाली है
~ सिद्धार्थ