“मन मेँ थोड़ा, गाँव लिए चल”
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
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पीपल की वह, छाँव लिए चल,
झूला, गीत मल्हार लिए चल।
सोँधी मिट्टी, सुआ, चिरैया,
पीयु पपीहा, कूक कोयलिया।।
कागा की कुछ, काँव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
होना अभी, बहन का गौना,
कूदे ओसारे मेँ, छौना।
चाट चाट कर, प्यार जताता,
अद्भुत, अमिट, जुड़ाव लिए चल।।
गैया का, गरियाँव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
हुई सफ़ाई, लीपी देहरी,
रँगी पुती है, दिखती बखरी।
गँवई साज-सम्हाल, लिए चल,
चूल्हा, चकिया, छाछ लिए चल।।
अम्मा का दुलराव, लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
बेटी खेले, गुड्डा-गुड़िया,
आँगन बेटा, छुपन-छुपैया।
बात बात पर, भले लड़ैया,
ओढ़ैँ लेकिन, एक दुलैया।।
बचपन का, अपनाव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
नहीं चाहिए, ज़ेवर-सोना,
पुलकित, घर का कोना-कोना।
गुड़िया की, बारात है आई,
मिल सखियों ने, करी खिँचाई।।
स्नेहिल, आतिथि भाव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
बाबा हँसते, आवे खाँसी,
झुकी पीठ, पर गर्वित छाती।
हर्षित, देख-देख है थाती,
बच्चोँ सँग, बच्ची बन जाती।।
दादी का, करिहाँव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
ठाकुर ताऊ, चाचा नाऊ,
पँडित जी को, शीश नवाऊँ।
सबसे रामजुहार किए चल,
सबका आशिर्वाद लिए चल।।
चौपाली वह, ठाँव लिए चल,
मन मेँ थोड़ा गाँव लिए चल..!
जिसकी चाल गज़ब मतवाली,
नयन-नक़्श, पर नखरे वाली।
चितवन जिसकी, सबसे न्यारी,
हरहु नाथ मम, सँकट भारी।।
हाय, मगर किसपे दिल हारी,
बरनि न जाए, कछू लाचारी।।
ठाकुर की, छोरी अनुरागी,
तेली कै, छोरा सँग भागी।।
ठकुराइन के, ठाठ लिए चल,
ठाकुर का, वह ताव लिए चल।
अद्भुत, लेकिन ब्याह लिए चल,
सामाजिक, सद्भाव लिए चल।।
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
साँझ भई, आए नहिं सजना,
करूंगी जी भर, आज उलहना।
नयनोँ भर, श्रंगार लिए चल,
सजनी की, मनुहार लिए चल।।
प्यार-पगा, यह दाँव लिए चल,
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
सावन, रूठ चले इस बारी,
सूख चली है, खेती सारी।
भादों-क्वाँर है, लेकिन बाकी,
बरखा भी, अचरज दिखलाती।।
कम, बापू मन-भार, किये चल,
“आशा” का, सँचार किए चल।।
मन मेँ, थोड़ा गाँव लिए चल…!
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