मन मर जाता है तब
सही को गलत कह दो
प्रेम को ढोंग कह दो
सीने में लगी आग को
बदले वाले भाव कह दो
बदौलत किसी पर निर्भर
जीता है कोई कैसे तब
कैसे कामयाबी कहते हैं सब
यह मन मर जाता है तब
यह मन मर जाता है तब…
पात गिरे भले शाख सूखे
खुद के पांव भले न चले
क्रोध के सहारे जिंदगी चले
अपने घरों में लोग लड़े
फिर क्यों नसीहत की डोर को
कैसे वो थाम लेते हैं जब
यह मन मर जाता है तब
यह मन मर जाता है तब….
दिखावे की शान को संवारते
रहम की भीख वहम से मांगते
दुनिया में रोज मोह को जागते
छीनकर किसी का घर उजाड़ते
अमीरों की गलियों को सजाते
भूखे पेट को अनजान करते हैं जब
यह मन मर जाता है तब
यह मन मर जाता है तब….
संतोष जोशी
गरुड़ बागेश्वर
उत्तराखंड