मन मंथर गति से कुछ डोले
मन मंथर गति से कुछ डोले
संभल रहा होठो तक आकर
चुप हूँ सोच रहा क्या बोलें।
पर लेखनी मचल उठती है,
नहीं रुके मन की हलचल ।
कितना चुप रह कर गुजारे
जीवन के अनपोल सुखद पल।।
सम्भव है संवाद स्वयं से
फिर क्यों गुमसुम रहूॅ आजकल ।।
सृजन और चिंतन की पूँजी,
नही कमाई और न धन बल।।
#विन्ध्य प्रकाश मिश्र विप्र