मन भी क्या मन है यारों
हम एकांत जब रहते हैं तो मन हमारा फिरता है।
ये मन भी क्या मन है यारों जो मारा-मारा फिरता है।
वक्त की कश्ती घिर जाती है जब भी मुश्किल सी
लहरों में,
लाख कोशिश के बाद भी तो नहीं किनारा मिलता है।
ये मन भी क्या मन है यारों जो मारा-मारा फिरता है।
नहीं पता था के हमसे जुर्म बड़ा संगीन हुआ है।
न जाने किस कारण से मन मेरा गमगीन हुआ है।
मन डिगता जाता है हरदम और हारा-हारा फिरता है।
ये मन भी क्या मन है यारों जो मारा-मारा फिरता है।
अब मन में है कोई चाह नहीं।
अब किसी की भी परवाह नहीं।
अब तो आँखों के आगे विचित्र नज़ारा फिरता है।
ये मन भी क्या मन है यारों जो मारा-मारा फिरता है।
हर तरफ अंधेरी रातें हैं दिन का कोई पता नहीं।
हम तो मन के अच्छे थे ये तो मेरी खता नहीं।
हम तो थक हार के बैठे हैं गम हमारा फिरता है।
ये मन भी क्या मन है यारों जो मारा-मारा फिरता है।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी