मन बहला कर
* गीतिका *
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स्वप्न दिखाऐ मन बहला कर बैठे हैं।
स्नेह भरे कुछ दीप जला कर बैठे हैं।
अपनी ही जिद के पक्के हैं लोग यहां।
सब मालूम हमें पगला कर बैठे हैं।
स्वार्थ स्वयं का ही जिनका है कार्य प्रथम।
क्यों किसका वो आज भला कर बैठे हैं।
कहने को मासूम बहुत बनते लेकिन।
वो नयनों से तीर चला कर बैठे हैं।
उनको हमसे कोई मतलब है शायद।
झूठा अपनापन जतला कर बैठे हैं।
कोई स्वार्थ नया उपजा उनके मन में।
गहरे जख्मों को सहला कर बेठे हैं।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, ३०/०४/२०२२