मन निर्विकार
निर्विकार निराकार एक स्वप्न
साकार होता हुआ ,
तोड़ कर भ्रान्तियाँ ,
कर रहा क्रान्तियाँ ,
किन्तु है निशब्द ,
मन मेँ है भय व्यप्त ,
स्वप्न ही तो मगर ,
जो आज क्रान्तिकारी हुआ ,
मन के जो कनक पट ,
जो बन गये थे बंद गुहा ,
खुलते ही जा रहे हैँ ,
टूटते ही जा रहे हैँ ,
स्वप्न के आगाज़ से ,
स्वप्न के दबाव से,
परिवर्तन ने फैलाये पर,
ह्रदय के कपाट पर ,
प्रतीक्षा है अब तो बस ,
काश ये हो जाये सच,,
कल्पना के ढेर से ,
स्वप्न वो बाहर तो आये,
मंजिलोँ को ढ़ूँढ पाये ॥” **