मन तो करता
मन तो करता
कई बार बंदिशों को तोड़ कर
जीने का मन सब का करता हैं
लहरें उफऩ कर किनारों को छूती हैं
हां उनको सागर में ही वापस आना हैं
पर किनारों से पुराना आशिकाना हैं
मन तो करता ही है चांद तक जाने का
एक बार आसमान को छू आने का
किसी को अपने गेसुयों में उलझाने का
ना खत्म होने बाली रात तक बतियाने का
हां पता हैं, ये मुमकिन कहां है
खड़ा देखता, सारा ही जहां हैं
बंदिशें हैं लाजो शरम की
जिम्मेदारियों का पहरा भी गहरा हैं
पर मन का घोड़ा सरपट दौड़ता हैं
ये कहां किसी की सुनता हैं
तो बस चांद को निहारना ही बहुत हैं
किसी को याद कर मुस्कुराना बहुत हैं
काफ़ी हैं कुछ नज़्में उसकी लिख लूं
कुछ गजलों में जिक्र उसका कर लूं
कुछ अनकहा कवितायों में कह दूं
शायद कभी मेरी रूह उस से मिल जाएं
और जमाने को कुछ नज़र भी ना आएं
दीपाली कालरा