*मन के भीतर बसा हुआ प्रभु, बाहर क्या ढुॅंढ़वाओगे (भजन/ हिंदी
मन के भीतर बसा हुआ प्रभु, बाहर क्या ढुॅंढ़वाओगे (भजन/ हिंदी गजल)
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1)
मन के भीतर बसा हुआ प्रभु, बाहर क्या ढुॅंढ़वाओगे
बाहर ढूॅंढ़ोगे प्रभु को तो, खुद को ही भटकाओगे
2)
निराकार है जो प्रभु सोचो, व्यापक है जो जग-भर में
कण-कण को जब जोड़ोगे तो, दर्शन उसके पाओगे
3)
जब भी चाहे जहॉं बैठ लो, तुमको प्रभु मिल जाऍंगे
अंत:करण प्रकाशित होगा, फिर आनंद मनाओगे
4)
पाई-पैसा खर्च न होता, प्रभु की छवि को पाने में
आडंबर को रच-रच कर तो, बस अभिमान बढ़ाओगे
5)
पुनर्जन्म के चक्कर में ही, जाने कितने जन्म गए
एक बार निर्दोष जिए तो, कभी नहीं फिर आओगे
6)
उसमें ही सब हैं वह सब में, गुॅंथी हुई हो ज्यों रस्सी
परम ब्रह्म को समझ सकोगे, जब ऐसे समझाओगे
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रचयिता: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451