मन के पन्नों में उलझी मैं..
मन के पन्नों में उलझी में,
जीवन पन्ने सुलझाती हूं।
खुद को समझने में निष्फल,
मैं औरों को समझाती हूं।
फिर कलह हुआ, लो जंग छिड़ी,
खुद से ही लड़ती जाती हूं.।
इस मन बुद्धि संग्राम में मैं ,
खुद से ही मुंह की खाती हूं ।
मन की लहरों में नाव चला,
मन ही में गोते खाती हूं ।
यूं प्रश्न सिंधू में डूबी मैं,
पर उत्तर ना कोई पाती हूं..
खुद को पाने की जिद में मैं,
खुद को ही खोती जाती हूं ।
खुद, खुद को दिलासा देती हूं,
खुद से ही धोखा खाती हूं।
ये भी करती, वो भी करती,
सब कर्म किए ही जाती हूं।
चाहे कितने भी यत्न करूं ,
पर खुद को नहीं मैं पाती हूं।
खुद में खोई खुद में पंकित,
खुद से जूझी खुद पर शंकित,
यकीन नहीं कर पाती हूं ,
हर पल -पलछिम ,हर पग पग पर..
मैं खुद को अकेला पाती हूं..
मैं खुद को अकेला पाती हूं..