मन के दुख
मन के दुख गृह की कलह,
द्यूत हार धनहानि।
निज सँग छल अपयश व्यथा,
प्रकट न करिए जानि।
प्रकट न करिए जानि,
व्यर्थ हैं गान दान के।
लाभ न कछू बखानि,
न लक्षण ये सुजान के।
कह संजय कविराइ,
रहो मत गूँगे बन के।
जग में होत हँसाइ,
कहो यदि दुखड़े मन के।
संजय नारायण