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14 Jun 2020 · 1 min read

मन के दुख

मन के दुख गृह की कलह,
द्यूत हार धनहानि।
निज सँग छल अपयश व्यथा,
प्रकट न करिए जानि।

प्रकट न करिए जानि,
व्यर्थ हैं गान दान के।
लाभ न कछू बखानि,
न लक्षण ये सुजान के।

कह संजय कविराइ,
रहो मत गूँगे बन के।
जग में होत हँसाइ,
कहो यदि दुखड़े मन के।

संजय नारायण

5 Likes · 495 Views
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